रूपिंदर सिंह
प्रतिबद्ध वार्ताकार, ज्ञानशील, जोशीला व प्रशंसनीय – इनमें किसी भी एक गुणवाला युवा फूलकर कुप्पा हो सकता है। लेकिन अगर किसी एक व्यक्ति में ये सभी, बल्कि इनसे भी कहीं बहुत ज्यादा गुण हों तो क्या होगा? निस्संदेह वह एक गाथा होगा – शहीद। यह शख्स था ही ऐसा कि अगर शहीद शब्द न जोड़ा जाये तो उसका नाम अधूरा लगता है। स्वतंत्रता सेनानी भगतसिंह शहीद के रूप में अमर हो गये हैं जिन्होंने अपने कारनामों से देश का इतिहास बदलने में सहयोग दिया।
क्या यह केवल उनका बलिदान ही था जिसने भगत सिंह को महान बनाया? नहीं, बिल्कुल नहीं। इस शब्द के बारे में और भी बहुत कुछ है जो 24वां जन्मदिन भी नहीं मना पाया था लेकिन अपनी शहादत के 80 साल बाद भी प्रेरक विरासत छोड़ गया है इतना कि असंख्य राजनीतिक गुट उसे सहेजना चाहते हैं।
भगत सिंह को समझना मुश्किल है। हालांकि उन्हें लंबी जिंदगी नहीं मिली लेकिन उनका जीवन घटनाओं से ओत-प्रोत रहा, उनके आसपास की घटनाओं ने उनकी मानसिकता को शक्ल दी। फलत: उन्होंने इतहास को आकार देने पर बहुत असर डाला।
भगत सिंह के बचपन के दिनों पंजाब अशांत था। वह बारह साल के थे जब 13 अप्रैल, 1919 को ब्रिगेडियर जनरल रेगिनाल्ड डायर ने अपने सैनिकों को जलियांवाला बाग, अमृतसर में जमा निहत्थी भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। दस मिनट में 1600 गोलियां चलायी गयीं। सरकारी सूत्रों के अनुसार 379 लोगों की मौत हुई जबकि अन्य के मुताबिक करीब एक हजार मौतें हुईं और दो हजार घायल हो गये। भारतीय इतिहास की यह सर्वाधिक वीभत्स घटना है।
यद्यपि उनकी प्रारंभिक शिक्षा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड प्राइमरी स्कूल बंगा जिला लायलपुर से हुई, जो अब पाकिस्तान में है, भगत सिंह उस समय डीएवी हाई स्कूल लाहौर में पढ़ रहे थे जिसे उस समय राजद्रोहात्मक गतिविधियों की नर्सरी माना जाता था। भगत सिंह ने ढेरों पुस्तकें पढ़ी और धाराप्रवाह उर्दू में उन्होंने महारत हासिल कर ली। उन्होंने अपने दादा अर्जुन सिंह को पहला पत्र इसी भाषा में लिखा।
20 फरवरी, 1941 को जब वह 14 साल के ही थे तब वे गुरुनानक जी के जन्मस्थान ननकाना साहिब में थे। वहां एक घटना ने उन पर बड़ा गहरा प्रभाव छोड़ा। ननकाना साहिब के कस्टोडियन नारायणदास और उनके आदमियों ने अकाली प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चला दी। इस फायरिंग की व्यापक तौर पर निंदा हुई और तब तक एक संघर्ष चला जब तक इस ऐतिहासिक गुरुद्वारा का कब्जा दोबारा से सिखों को नहीं मिल गया। भगत सिंह ने ननकाना साहिब जाने वाले श्रद्धालुओं की रास्ते में पड़ते अपने गांव में लंगर में सेवा की।
1923 में जैतो मोर्चा के समय वह 16 साल के थे, जब नाभा के महाराजा रिपुदमन सिंह की बहाली को लेकर अकालियों ने संघर्ष छेड़ा था। नाभा के महाराजा देशभक्तों के प्रति सहानुभूति रखते थे। इस असंतोष और दमन के वातावरण में भगत सिंह जैसे शहीद तैयार हो रहे थे।
16 साल की उम्र तक भगत सिंह ने यह तय कर लिया था कि उसे अपने जीवन में क्या करना है- वह देश को आजादी दिलाने के अपने काम के प्रति समर्पित हो गये। ऐसे करते समय उन्होंने बी जी गोखले और उनके समर्थकों के संवैधानिक दृष्टिïकोण को नहीं माना। महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन उन्हें ज्यादा देर तक नहीं रोक सका। भगत सिंह को क्रांतिकारी रास्ता ज्यादा सही लगा, हालांकि ब्रिटिश राज का सामना करते समय हिंसा के रास्ते का भी सामना करना था।
भगत सिंह ने 1923 में लाहौर के नेशनल कालेज में दाखिला लिया। भगत सिंह ने शैक्षिक तौर पर अपनी एक सकारात्मक छाप छोड़ी। वह कालेज की ड्रामैटिक सोसायटी के सदस्य भी थे। इस समय तक वह उर्दू, हिंदी,गुरमुखी, इंग्लिश और संस्कृत में धारा-प्रवाह बोलना सीख गये थे।
वर्ष 1923 में पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा करवाए गए निबंध मुकाबले में भगत सिंह विजेता बने थे। इसमें पंजाब की समस्याओं पर चर्चा की गई थी।
उन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ज्वाइन की। एक वर्ष बाद उनके परिवार वालों ने उन पर शादी का दबाव बनाया। शहीदे आजम भगत सिंह नहीं चाहते थे कि देश के गुलाम रहते शादी के चक्कर में पड़ें। बल्कि उनका यह पक्का विश्वास था कि गुलामी में तो उनकी शादी केवल मौत से ही हो सकती है और इतिहास इस बात का गवाह है कि 23 मार्च 1931 को ऐसा ही हुआ।
शादी के लिए परिवार के दबाव के चलते उन्होंने लाहौर में अपना घर छोड़ दिया और कानपुर चले गये। वे घर छोड़ते वक्त अपने पिता के लिए एक पत्र छोड़ गए जिसमें उन्होंने लिखा-‘उनका जीवन एक महान उद्देश्य को समर्पित है और वह है देश की आजादी। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कोई भी प्रलोभन उन्हें रोक नहीं सकता।’
भगत सिंह को 1927 में काकोरी ट्रेन लूट के मामले में गिरफ्तार किया गया। लाहौर में दशहरा मेला में बम विस्फोट के लिए भी भगत सिंह को जिम्मेदार माना गया। बाद में अच्छे बर्ताव के कारण उन्हें 60,000 रुपये की भारी सुरक्षा राशि के बदले रिहा कर दिया गया।
सितंबर 1928 में दिल्ली में कीर्ति किसान पार्टी के बैनर तले विभिन्न क्रांतिकारियों की एक बैठक बुलाई गई। भगत सिंह इस बैठक के सचिव थे। उसके बाद इस एसोसिएशन के नेताओं ने कई क्रांतिकारी गतिविधियां कीं।
लाला लाजपत राय को अंग्रेजों ने जिस निर्ममता से मारा, उससे उनका खून खोल उठा था। वे इस घटना के जिम्मेदार ब्रिटिश अधिकारियों को सबक सिखाना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने सांडर्स को मौत के घाट उतार दिया था। बाद में भगत सिंह व बटुकेशवर दत्त ने एक अन्य क्रांतिकारी कदम उठाते हुए असेंबली में बम फेंका। तब उन्हें गिरफ्तार कर जेल में भेज दिया गया।
बहुत आयामी व्यक्तित्व के धनी भगत सिंह अपने क्रांतिकारी साथियों के थे और वे उन पर अटूट विश्वास रखते थे। दशकों बाद भी हरेक युवक के वे आइकॉन हैं। राजनीतिक पार्टियां तब भी और अब भी उन्हें अपना ही कहती हैं।
हमें भगत सिंह के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने अपने लेखों व डायरियों के जरिए उच्च मानडंड स्थापित किये। उन्होंने जुल्म और शोषण पर टिकी व्यवस्था बदलने के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर में फांसी पर लटका दिया गया। वे एक राष्ट्रवादी, एक हीरो और युवा थे जो कइयों के प्रेरणास्रोत बने।
This article by Roopinder Singh was published in Dainik Tribune on March 23, 2011